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कब वक्त मिला कुछ सोच सकूं


जीवन की आपा धापी में

कब वक्त मिला कुछ सोच सकूं

क्या खोया मैंने क्या पाया,

कब कौन सी मैंने राह चुनी,

किस मंज़िल ने मुझे अपनाया।


हर राह बड़ी पेचीदा थी,

हर मंज़िल बड़ी निराली थी,

हर दिन की बात अनोखी थी,

हर रात बड़ी मतवाली थी।


हर सफ़र बड़ा अलबेला था,

तन्हाई थी कभी मेला था,

हर रोज़ नया कुछ सिखलाया,

हर रोज़ नया कुछ दिखलाया।


जाने कितनी राहें छूटीं,

कई बार कोई मंज़िल रुठी,

परेशान हुआ मन घबड़ाया,

पर मैं डटा हूं बस अपनी धुन में,

क्योंकि ये सफ़र ही तो हूं जीने आया।

--ब्रजेश कुमार (Bk)

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