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कोरोना से जनता बेहाल, पर बड़ा पूंजीपति खुशहाल


*आंकड़ों के आइने से कोरोना महामारी में बेहाली और खुशहाली की राजनीति को समझते हुए।*

सभी जानते हैं कि कोरोना महामारी के कारण उद्योग-धंधे तबाह हुए हैं। करोड़ों लोगों को अपने कामकाज से हाथ धोना पड़ा है। कईं मिलों-कारखानों को नुकसान उठाना पड़ा है, जिस कारण मालिकों को छंटनी करनी पड़ी है व कामगार बेरोजगार हुए हैं। परंतु इस अति सरलीकरण से कोरोना की वर्ग-विशेषता समझ नहीं आ सकती। इसे समझने के लिए आंकड़ों का सहारा लेना बहुत जरुरी है। दरअसल विश्व पूंजीवाद को कोरोना ने और मजबूती प्रदान की है। इस बात यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि कोरोना संक्रमण सिर्फ एक ढकोसला या शासक वर्गों की एक चाल है। इसे हम इस तरह से देख सकते हैं कि इस आपदा को अवसर में बदलकर वर्ग विशेष ने अपने को समृद्ध किया है। वर्ग-विशेष के समृद्ध होने से उनकी प्रतिनिधी सरकारों को भी एक हद तक अपनी कमियां छुपाने का मौका मिला या यूं कह सकते हैं कि इस प्रकार उनका शासन भी समृद्ध हुआ। विश्व पूंजीवदी व्यवस्था के अंर्तगत आने वाले व अक्सर छिपे रह जाने वाले अंतर्विरोधों को भी इस महामारी ने उजागर किया है। वाशिंगटन पोस्ट के मुताबिक इस दौरान अमरीका की सबसे ज्यादा बेशकीमती 45 से 50 सार्वजनिक कंपनियों का मुनाफा बढ़ता रहा है। फिर भी इनमें से 27 ने कामगारों की छंटनी(नौकरी से बाहर निकाल देना) की। कुल मिलाकर इन कंपनियों ने 1 लाख कामगारों को काम से हटाया। 

इसी तरह मिंट अखबार के मुताबिक भारत में 475 सूचीबद्ध कंपनियों को शुद्ध मुनाफा 2020-21 के अंतिम तीन महीनों में 117.44 फीसद तक बढ़ गया। दूसरी तरफ अप्रैल-मई 2020 में लाॅेकडाउन के कारण जिन 10 करोड़ लोगों की नौकरी चली गई थी, उनमें से ढेड़ करोड़ लोग अपनी नौकरी वापिस नहीं पा सके। आंकड़े बताते हैं कि 23 करोड़ लोग महामारी के दौरान 375 रुपये न्यूनतम राष्ट्रीय मजदूरी के नीचे चले गए। चार लोगों के किसी औसत परिवार की आमदनी जनवरी 2020 में 5,989 थी, जो अक्तूबर 2020 में घटकर 4,979 रह गई। मजदूरों को जीडीपी में हिस्सा 32.5 फीसद से घट कर 2020-21 में 27 फीसद रह गया। 

इन आंकड़ों को देखकर हम कह सकते हैं कि निजी क्षेत्रों में काम करने वाले कामगारों के जीवन में आने वाले संकट को नजरअंदाज करते हुए, अपने मुनाफे को बरकरार रखने की प्रवृत्ति से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का रथ तदनुरुप दौड़ता चला जाता है।

इसी तरह भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 2020 में जून से दिसंबर के बीच परिवारों की कुल बचत आधी से भी कम रह गई। यही बचत देश के जीडीपी का 21 फीसद थी जो सितंबर 2020 में 10.4 फीसद रह गई। जो बचत राशी जून 2020 में 8,15,886 करोड़ रुपये थी, वो सितंबर 2020 में 4,91,906 करोड़ रह गई। और दिसंबर 2020 में यह और कम होकर 4,44,583 करोड़ रुपये रह गई थी। 

अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन ने 2020-21 की अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि वर्ष 2020 में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में 22.6 फीसद की गिरावट आई और संगठित क्षेत्र में औसतन 3.6 फीसद की। भारत में तो वैसे भी पिछले कुछ सालों से मजदूरी की बढत में लगातार गिरावट आई है। 2015 में 2.8 फीसद की बढ़त, 2016 में 2.6 फीसद हुई और 2017 में यह 2.5 फीसद पहुंची व 2018 में शून्य हो गई। 

इस बीच सैनिटाइजर, दस्ताने, पीपीई किट्स, दवाएं, टीका के जरिए बेशुमार मुनाफा बटोरा गया। शौच जैसी कुदरती मजबूरी से पैसा कमाने की प्रकृति वाली राजनीतिक अर्थव्यवस्था ने तो गैरजरुरी जांच के नाम भी बहुत पैसा कमाया। आज 300 में होने वाली जांच महामारी के शुरुआती दिनों में 3000 रु में भी हुआ करती थी। मुनाफा कमाने में सबसे बढ़िया रहीं कोविड-19 की वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां। कईंयों में से फाइजर और मोडर्ना के उदाहरण बहुत ताबड़तोड़ हैं। फाइजर ने इस साल के लिए अपनी बिक्री का लक्ष्य रखा था 33.5 अरब डालर यानी 275 करोड़ रुपये। लेकिन पहले छह महीने में ही यह 33.6 अरब डालर को पार कर गया। मोडर्ना का कोई भी उत्पाद महामारी से पहले स्वीकृत नहीं था। लेकिन जुलाई 2021 तक इसके शेयरों का बाजार भाव 149.7 अरब डालर पहुंच गया। भारत में बनने वाली माइक्रो लैब्स लिमिटिड कंपनी की डोलो-650 गोली की बिक्री भी इस कदर बड़ी की अब तक 350 करोड़ से ज्यादा की तादाद में डोलो-650 की गोलियां बिकीं। कहा जा रहा है कि अब तक बिक चुकी इन गोलियों को यदि एक पर एक रखा जाए तो धरती से चांद तक उंची ढेरी लग जाएगी।

इन्हीं समयों में यदि बेराजगारी की बात करें तो आंकड़े फिर से बोल पड़ते हैं कि जनवरी 2021 में बेराजगारी की दर 6.21 से बढ़कर दिसंबर 2021 में 7.91 फीसद हो गई। इन्हीं 12 महीनों में यह शहरी इलाकों में 8.09 फीसद से बढ़कर 9.3 फीसद और देहाती इलाकों में 5.81 फीसद से बढ़कर 7.28 फीसद हो गई। आपदा को अवसर बनाने वाले शासकों ने भोपू उठा लिए और बढ़ती बेरोजगारी का ठीकरा महामारी से सर पर फोड़ दिया। जबकि आंकड़े फिर से सर उठाकर सामने आए और बताने लगे कि साल 2017-18 में बेरोजगारी की दर थी 4.7 फीसद जो बढ़कर 2018-19 में हो गई थी 6.3 फीसद।

एन.एस.एस.ओ के आंकड़ों के अनुसार 2019 में 20 से 24 के नौजवानों के बीच बेरोजगारी की दर 34 फीसद थी। शहरी इलाकों में 37.5 फीसद थी। सीएमआईई के मुताबिक 20 से 29 साल के नौजवानों के बीच बेरोजगारी की दर 28 फीसद थी। मतलब इस उम्र के लगभग 3.1 करोड़ लोग बेरोजगार थे। 20 से 24 साल के नौजवान ग्रैजुएटों के बीच बेराजगारी की दर 63.4 फीसद थी। मतलब इस तरह के 3 में से 2 नौजवान बेराजगार थे।

तो कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बेशक महामारी ने हर किसी को परेशान किया परंतु फिर भी यह सच है कि कोरोना से जनता बेहाल है, पर बड़ा पूंजीपति खुशहाल है।

- धीरज बिस्मिल

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