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समाज में बहुत तनाव है क्या, कुछ पता करो, कहीं चुनाव है क्या।



हालांकि राहत इंदोरी साहब ने असल में कहा था - ‘सरहदों पर बहुत तनाव है क्या, कुछ पता करो कहीं चुनाव है क्या’। मगर राहत जी का सरहद का तनाव चुनाव के चुम्बक से बच नहीं पाता और सरहद के अंदर आ जाता है। चुनाव सरहदों के उस तनाव को इस प्रकार अंदर खींचता है कि दो देशों की सेनाएं नहीं लड़ती बल्कि लोग आपस में युद्ध करने लगते हैं। चुनाव के समय की सामान्य विशेषता यही है कि वह कभी सरहद पर तो कभी सरहद के भीतर तनाव पैदा कर ही देता है। यानि चुनाव का तनाव से ऐसा रिश्ता है जिसने राहत साहब को भी राहत की सांस नहीं लेने दी और उनसे कलम उठवा दी। राहत साहब ने भी कलम उठा दी और इस तनाव का जिक्र कर दिया। पर सभी राहत नहीं होते कि राहत से सोचें और शायराना अंदाज में इसका जिक्र मात्र कर दें। कईंयों को राहत तभी मिलती है जब वो इस तनाव से निकले लहू से उस फसल कि सिंचाई करते हैं, जिसे वे चुनाव के दौरान काटते हैं और अपना राजनीतिक पेट भरते हैं। 

यमक अलंकार का इस्तेमाल बंद कर सीधी बात करता हूं। किसान आंदोलन के आखिरी समय से अब तक फासीवादियों ने समाज में अल्पसंख्यकों के खिलाफ तनाव पैदा करने की एक और मुहिम को संगठित तौर पर छेड़ा है और बढ़ाया है। उन्होंने हरयाणा, उत्तर प्रदेश में खासकर नमाज अदा करने के लिए सरकार द्वारा दी गई जगहों पर होने वाली नमाज का सक्रिय विरोध कर फासीवादी धार्मिक आंदोलन का नया आयाम तैयार किया है। खुले में नमाज के खिलाफ यह आंदोलन इस तर्क की वकालत करता है कि धार्मिक कार्यों के लिए सार्वजनिक स्थानों का इस्तेमाल बंद होना चाहिए। लेकिन यह बात उपर से दिखने वाली है। असल में यह खुले तौर पर मुस्मिल विरोधी ललकार है, तो हिंदुत्व फासीवादियों कि इस विचारधारा से निकलती है, जिसमें वे मुस्लिमों को भारत में दोयम दर्जे की नागरिकता की वकालत करते हैं। इस विचारधारा का अंतिम लक्ष्य मनुस्मृति पर आधारित हिंदू राष्ट्र का निमार्ण करना है। अतः आज हिंदुत्व फासीवादी यह सिद्ध करना चाहते हैं कि हिंदुओं के अलावा किसी अन्य धर्म के मानने वालों को सार्वजनिक जगहों पर अपने धर्मानुसान पूजा-अर्चना की इजाज़त नहीं है। दिल्ली व उत्तर प्रदेश में सुनियोजित रुप से चर्चों पर भी ‘जबरन धर्मांतरण’ का आरोप लगाकर तोड़-फोड़ की गई है। 

किसान आंदोलन से अपनी खोई हुई चुनावी फसल को फिर से विकसित करने के उद्देश्य ही ऐसा किया जा रहा है। हरियाणा में खुद प्रशासन द्वारा दी गई जगहों पर नमाज के खिलाफ अंदोलन को पहले होने दिया गया और फिर मुख्यमंत्री ने खुद ही कहा - ‘‘खुले में नमाज बर्दाश्त नहीं की जाएगी’’

भाजपा शासित कनार्टक में 23 दिसंबर 2021 को धर्मांतरण विरोधी कानून पास कर दिया गया। इससे पहले उत्तर प्रदेश में नवंबर 2020, मध्य प्रदेश में मार्च 2020 व हिमाचल प्रदेश में दिसंबर 2020 को इसी तरह के धर्मांतरण विरोधी कानून पास किए गए। फासीवादी हिंदुत्व राजनीति की संसदीय अभिव्यक्ति इन कानूनों के रुप में हुई है। सर्वविदित है कि इन कानूनों का आधार जबरन धर्मांतरण, व लव जिहाद जैसे शगूफे व भौंडे प्रचार हैं। ऐसे शगूफों से ही समाज में समुदायों के भीतर तनाव व नफरत पैदा की गई है और फिर उस पर नफरत की राजनीति की सीढ़ी बिछाई जा रही है, जो कि सीधे सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाती है। 

कुछ ही दिन पहले देश के अलग-अलग इलाकों में हुई धर्म संसदों में एक कदम और आगे बढ़कर फासीवादी हिंदुत्व आंदोलन को हथियारबद्ध करने के आह्वान किए गए। हथियारबद्ध होना अब वामपंथी खेमे से निकलकर दक्षिणपंथी खेमे में आ रहा है। हो तो यह पहले से ही रहा है, लेकिन इतना खुलेआम होने में यह कुछ संकोच कर लेता था। इन खुली ललकारों का मकसद सिर्फ धार्मिक तनाव पैदा करना न होकर धार्मिक लड़ाकों की हिंदू तालीबानी फौज के निमार्ण की खुली घोषणा का प्रकटीकरण होता है।

सत्ता में पहुंचाने के साथ-साथ, यह धार्मिक तनाव सत्ता की कईं मायनों में मदद करता है। यह एक समुदाय को आभासी बल देकर सत्ता के जनविरोधी चेहरे को छिपाने में मदद करता है। बेरोजगारी, गरीबी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मसलों को अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुकूल बनाने में मदद करता है। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें। उ.प्र में हाल के दिनों में तनाव की अभिव्यक्ति मुस्लिमों पर होने वाले हमलों के रुप में सामने आई है। अर्थवेता आनिंद्यो चक्रवती बताते हैं कि उ.प्र में मुस्लिम आबादी 19 प्रतिशत है जबकि शहरी इलाकों में यह आबादी 33 प्रतिशत है। यानि शहरों में हर तीन में से एक इंसान मुस्लिम है। 25 प्रतिशत शहरी इलाके मुस्लिम बहुल इलाके हैं। यह 2011 की गणना है। जबकि 1981 की गणना के हिसाब से मात्र 17 प्रतिशत शहरी इलाके ही मुस्लिम बहुत इलाके थे। 17 प्रतिशत से 25 प्रतिशत की इस बढ़ोत्तरी का कारण जनसंख्या विस्फोट नहीं बल्कि काम की खोज में मुस्लिम आबादी का देहातों से शहरों की ओर पलायन है। इसलिए फासिवादियों के लिए यह बहुत आसान है कि वे आंकड़ों को उठाकर जनता के मन में मुस्लिम आबादी के बढ़ने का डर पैदा कर उन्हें भड़काएं। 

आंकड़े बताते हैं कि पहले से ही सरकारी व कार्पोरेट क्षेत्रों की नौकरियों में मुस्लिमों का अनुपात काफी कम है। वर्ष 2006 में आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी इसी तथ्य की वकालत करती है। अतः मुस्लिमों का अनुपात स्व-रोजगार की तरफ अधिक बढ़ा है। दर्जी, ड्राइवर, होम डिलीवरी ब्वाय, पेंटर आदि कामों में मुस्लिमों की ठीक-ठाक आबादी कार्य करती है और अपनी जीविका चलाती है। पी.एल.एफ.एस के 2019-20 के आंकड़े बताते हैं कि 36 प्रतिशत शहरी हिन्दुओं के मुकाबले 45 प्रतिशत शहरी मुस्लिम स्व-रोजगार के कामों में लगे हैं। आनिंद्यो इस दृश्य की एक और तुलना करते हैं कि 2011-12 में अर्थव्यवस्था में संकट से ही नौकरियों में कोरोना के बाद यह संकट और गहराया है। जहां एक तरफ निजी क्षेत्र में नौकरियां कम हुई हैं वहीं दूसरी तरफ सरकारी विभागों में खाली पड़े पदों को भी नहीं भरा गया है। और वहीं आंकड़े बताते हैं कि उ.प्र में 20 से 29 वर्ष के शहरी युवाओं की आबादी में से 11.5 लाख युवा बेरोजगाार हैं। अंततः सरकार इन बेरोजगारों को स्व-रोजगार की तरफ जाने के लिए प्रेरित कर रही है। स्वरोजगार के लिए जब यह युवा जिनमें मुख्यतः उच्च जातीय व मध्य जातीय हिंदू हैं, काम ढूंढते हैं, तो इन्हें हर तरफ मुस्लिम ही नजर आते हैं। रोजगार के ऐसे संकट में फासीवादी गिरोह अपना खेल खेलने आ जाते हैं। युवाओं के जिस गुस्से को सरकार व उसकी नीतियों के खिलाफ संगठित होना चाहिए था, उसे अब अल्पसंख्यकों के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता है। इस परिस्थिती से उभरी उनकी चेतना को सांप्रदायिक कर दिया जाता है। तभी तो भगत सिंह ने कहा था - ‘‘वर्गीय चेतना का यही सुंदर रास्ता है, जो सांप्रदायिक दंगे रोक सकता है।’’

- धीरज बिस्मिल

Comments

  1. बहुत ही सटीक विश्लेषण।

    परंतु इस पर ज़रा विस्तार से बताएँ :
    "इस विचारधारा का अंतिम लक्ष्य मनुस्मृति पर आधारित हिंदू राष्ट्र का निमार्ण करना है।"

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