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बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरुरत होती है। फिल्म रिव्यू - धमाका

                                     
राम माधवानी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘धमाका’ 19 नवंबर 2021 को रिलीज हुई और वाकई में धमाका कर दिया। स्टोरी दो लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक है अर्जुन पाठक जो कि एक लीडिंग पत्रकार होने के बावजूद प्राइम टाइम शो से हटा दिया गया है और अब एक रेडियो कार्यक्रम में होस्ट के तौर पर काम कर रहा है। उसकी निजी जिंदगी तनावपूर्ण है क्योंकि अभी हाल ही में उसका तलाक हुआ है। अर्जुन पाठक एक कैरियरवादी, व्यवसायवादी किस्म का पत्रकार है, जो हर हाल में अपने कैरियर में उंची बुलंदियों को छूना चाहता है। दूसरा है खुद को रघुबीर महता कहने वाला तथाकथित आतंकवादी। दोनों किरदारों की बात फोन पर होती है। रघुबीर के शुरुआती संवाद से ही वो दिलचस्प इंसान लगने लगता है - ‘‘अमीरों को क्या लगता है कि सिर्फ वही टैक्स देते हैं, गरीब भी माचिस की डिब्बी से लेकर बिजली के बिल तक हर चीज पर टैक्स देते हैं।’’ पाठक जी को लगता है कि यह एक प्रैंक काॅल है लेकिन उनका भ्रम टूटता है वो भी एक धमाके से। और यह ‘धमाका’ करता है खुद को रघुबीर महता कहने वाला व्यक्ति। भगत सिंह ने कहा था ‘‘बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरुरत होती है।’’ रघुबीर द्वारा किया गया पहला धमाका अर्जुन पाठक को उसे सुनने के लिए मजबूर कर देता है। अर्जुन पाठक को मौका मिल जाता है और वह रघुबीर को सीढ़ी बनाकर अपने बाॅस से अपना खोया हुआ स्थान (प्राइम टाइम) हासिल करने के लिए ‘सौदेबाजी’ करता है।

‘सौदेबाजी’। पूरी फिल्म देखने के बाद खबरों की सौदेबाजी कैसे होती है, सामने आ जाता है। फिल्म देखने के बाद मुझे तो यह लगा कि इस फिल्म का नाम ‘धमाका’ नहीं बल्कि ‘सौदेबाजी’ होना चाहिए था। मौजूदा समय में प्राइवेट मीडिया घराने, कम्पनियां भी खबरों की ‘सौदेबाजी’ ही तो कर रही हैं, इसलिए तो सही खबरें, जनता से जुड़ी कहानियां, उसके हालात को बयां करने वाले किस्से बहुत कम ही सामने आ पाते हैं। अगर आएं भी तो उनका संदर्भ ही बदल दिया जाता है, जिससे दर्शकों के मन में उस घटना के प्रति सहानुभूति होने के बजाय नफरत पैदा हो जाती है। टीवी न्यूज चैनलों की टी.आर.पी की दीवानगी उनकी पैसा-शौहरत कमाने के लालच में पागलपन तक पहुंचती जा रही है। यह पागलपन अंधा नहीं है बल्कि बहुत चालाक है। इसकी चालाकी चाटुकारिता में भी अभिव्यक्त होती है। सत्ता के प्रति स्वामिभक्ति व राजसत्ता के प्रति दंडवत रहने से इनकी कमर टूटने के बजाय और मजबूत होती रहती है क्योंकि उसपर शासकों की अपरंपार कृपा बनी रहती है। 

खबरों को लेकर ‘सौदेबाजी’ नफे-नुकसान के नियम से संचालित होती है। यदि किसी खबर से चैनल की टीआरपी को नुकसान है या सत्ताधारी की बदनामी होती है तो वह खबर दबा दी जाती है। और अगर दब न सके तो उसे ऐसे घुमाकर पेश किया जाता है कि पीड़ित ही दोषी बन जाता है। आजकल ऐसे सौदेबाज मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ कहा जाता है। फिल्म में अर्जुन पाठक का जमीर तो जाग जाता है, लेकिन इन गोदी मिडियाओं के जमीर के जागने की कोई गारंटी नहीं है। गोदी मीडिया सत्ताधारियों की गोदी में बैठा उनके तलवे चाट-चाट कर पीड़ितों की ओर भौंकता रहता है। किसान आंदोलन व सी.ए.ए विरोधी आंदोलनों में इसकी भूमिका पीड़ित विरोधी ही रही है। 

रघुबीर महता अपनी बात कहने के लिए सार्वजनिक जगहों पर बम लगाकर सरकार को मजबूर करने की कोशिश करता है और मांग करता है कि उसके पिता जिनकी मौत पुल की मरम्मत करते वक्त हुई उसकी जिम्मेदारी सरकार ले और मंत्री जी सार्वजनिक तौर पर माफी मांगें। रघुबीर सिर्फ इतनी सी बात कहना चाहता है कि उस पुल को बनाने से लेकर उसकी मरम्मत करने तक के पूरे काम में पसीना बहाने वाले उसके मजदूर पिता को क्या मिला है? सरकार में किसी ने रघुबीर के पिता और उन जैसे करोड़ों मजदूरों की अनदेखी मेहनत व कुर्बानी की न ही जिम्मेदारी ली और न ही उनके परिवार का कोई साथ दिया। देश का निर्माण बिना मजदूर के नहीं हो सकता। लेकन विकास की अंधी दौड़ में मजदूर, दौड़ने वालों के पैरों के नीचे दब जाता है। बस इसी तड़प में रघुबीर ने सिर्फ एक ही मांग की ‘‘माफी’’। 

जैसा कि सर्वविदित है कि एक मजदूर से एक मंत्री कभी माफी नहीं मांगेगा। क्योंकि सत्ता की नजर में मजदूर इंसान नहीं बल्कि सिर्फ एक वोट मात्र है। और गोदी मीडिया की नजर में मजदूर की खबर सिर्फ एक टीआरपी साधन है। इसीलिए माफी के बजाय उसे अंत में सरकारी गोली मिलती है। लेकिन आखरी सीन में खुद को रघुबीर कहने वाला अर्जुन पाठक से कह गया कि ‘आप पूछे थे न कि आप ही को क्यूं काॅल किया। मेरे बाउजी सिर्फ आप ही का न्यूज देखता था। मैं पूछता था क्या देखते हो बाउजी? बाउजी कहते थे, यह आदमी जब कहता है कि जो भी कहूंगा सच कहूंगा...., ऐसा बोलेंगे तो भरोसा हो जाएगा न।’


--- धीरज बिस्मिल

Comments

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