हालांकि राहत इंदोरी साहब ने असल में कहा था - ‘सरहदों पर बहुत तनाव है क्या, कुछ पता करो कहीं चुनाव है क्या’। मगर राहत जी का सरहद का तनाव चुनाव के चुम्बक से बच नहीं पाता और सरहद के अंदर आ जाता है। चुनाव सरहदों के उस तनाव को इस प्रकार अंदर खींचता है कि दो देशों की सेनाएं नहीं लड़ती बल्कि लोग आपस में युद्ध करने लगते हैं। चुनाव के समय की सामान्य विशेषता यही है कि वह कभी सरहद पर तो कभी सरहद के भीतर तनाव पैदा कर ही देता है। यानि चुनाव का तनाव से ऐसा रिश्ता है जिसने राहत साहब को भी राहत की सांस नहीं लेने दी और उनसे कलम उठवा दी। राहत साहब ने भी कलम उठा दी और इस तनाव का जिक्र कर दिया। पर सभी राहत नहीं होते कि राहत से सोचें और शायराना अंदाज में इसका जिक्र मात्र कर दें। कईंयों को राहत तभी मिलती है जब वो इस तनाव से निकले लहू से उस फसल कि सिंचाई करते हैं, जिसे वे चुनाव के दौरान काटते हैं और अपना राजनीतिक पेट भरते हैं। यमक अलंकार का इस्तेमाल बंद कर सीधी बात करता हूं। किसान आंदोलन के आखिरी समय से अब तक फासीवादियों ने समाज में अल्पसंख्यकों के खिलाफ तनाव पैदा करने की एक और मुहिम को संगठित तौर पर छेड़...