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जय भीम - एक समीक्षा




2 नवंबर 2021 को रिलीज़ हुई फिल्म जय भीम खूब चर्चा में रही। न सिर्फ अपने नाम के लिए बल्कि उस विषय के लिए भी जिसके इर्द गिर्द यह फिल्म घूमती है। आदिवासी समाज पर ढा जा रहे सरकारी जुल्म, व जातीय उत्पीड़न जैसे विषयों को यह फिल्म अपने अंदाज में बयां करती है। इस फिल्म ने नाम को सुनकर मैंने भी इसे इसी मंशा से देखना शुरु किया था कि शायद इसमें अंबेडकरवादी आंदोलन के संदर्भ में कोई कहानी फिल्माई गई होगी। लेकिन कहानी के आगे बढते रहने से यह लगने लगता है कि इसका नाम गलत रख दिया गया है। नाम जो भी हो पर यह तो सच्चाई है आदिवासी समुदाय पर समय की सरकारों ने सैंकड़ों जुल्म ढाए हैं। आदिवासियों पर बड़ी मात्रा में फेक केस डाले जाने की खबरें पहले भी आती रही हैं। लाखों आदिवासियों पर फेक केस डालकर कईं-कई साल जेल में सड़ाने की रिपोर्टिंग मुख्यधारा के मीडिया में बेशक पहले सामने कम आई हो परंतु वैकल्पिक माध्यमों में यह चर्चा को विषय रहा है। लेकिन यह अकारण ही नहीं है कि आदिवासी समुदाय यह मला किया जा रहा है। इसके कारण हमारे राजनीतिक-आर्थिक ढांचे में छिपे हैं। आदिवासियों पर जो भी अत्याचार किया जा रहा है, फिल्म उसका चित्रण तोा करती है परंतु उसके पीछे मौजूद कारणों पर खमोश दिखती है। भाारत के औपनिवेशिक दौर से ही आदिवासी नायक उलगुलान का नारा लगाकर शासकों को जबर्दस्त टक्कर देते रहे हैं। बिरसा मुंडा द्वारा बजाए जाने वाले संघर्ष के बिगुल ने पर्वतों से भी उंची दहकती आग की ऐसी लपटें पैदा की हैं, जिसने आदिवासी समाज के इतिहास को विद्रोही चमक दी है। विदेशाी शासकों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ मुंडा आदिवासी विद्रोह, विदेशियों के ही उत्तराधिकारी देशी शासकों के खिलाफ आजादी के 40 साल बाद पुनः उलगुलान करने लग पड़ा था। उसी प्रक्रिया में वह फिर एक बार उठ खड़ा हुआ है और अपने जल, जंगल जमीन के लिए नए उलगुलान की हुकार भर रहा है। आदिवासी जनता के इसी विद्रोही तेवर के चलते उससे बदला लिया जा रहा है, जिसके बारे में कईं फिल्में पहले भी बन चुकी हैं। लेकिन इस फिल्म में इस संदर्भ को पूरी तरह छोड़ दिया गया है। फिल्म में वामपंथी संगठनों के नारों, झंडों, प्रदर्शनों की झलकियां व सीन कईं बार देखने को मिलते हैं परंतु फिल्म का कैनवस वामपंथी राजनीति से बहुत दूरी बनाकर रखता है। इसके बावजूद भी भारतीय समाज व पुलिस प्रशासन में मौजूद जातीवाद की कई तल्ख सच्चाईयों का सामने लाने में यह फिल्म कामयाब रही है। 

भारतीय राजनीति में पिछले एक-दो साल में दो बड़े राजनीतिक भूकंप के झटके हुए हैं। पहला कोरोना महामारी और दूसरा किसान आंदोलन। इन दोनों ने बड़े स्तर पर शासन को नंगा किया है, झंझोड़ा है व संघर्षों में लोगों के विश्वास को जगाया है। विश्वव्यापी किसान आंदोलन ने तो संघर्ष के नए तरीके, नए औजार, नई कला-संस्कृति को भी जन्म दिया है। ऐसे में शासकवर्गीय उच्चतम न्यायलय ने भी मैदान में आकर सरकार को सिर्फ डांट-डपट, फटकार लगाकर खुद को जनहितैषी साबित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगाया है। उच्चतम न्यायालय ने तो जनता में फैले असंतोष, गुस्से व सरकारी संस्थानों के प्रति बढ़ रहे अविश्वास की भावना के दबाव को कुक्कर की सीटी बनकर निकालने का कार्य ही किया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि न्याय को ढूंढने वाले लोग न्याय व्यवस्था के भंवर में कहीं गुम हो जाते हैं। इस फिल्म में भी वकील चंद्रू द्वारा जो केस लड़ा गया है असल में उसका फैसला आने में भी 13 साल लग गए थे। यह फिल्म भी जोली एल.एल.बी, मुल्क जैसी फिल्मों की तरह भारतीय न्याय व्यवस्था को ही नायक घोषित करने की अथक मेहनत करती है, जबकि असल नायक तो जनता ही होती है।

- धीरज ‘बिस्मिल’

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