Skip to main content

भगत सिंह और युवा !!

  By Shikhar

भारत ने आजादी के 70 साल पूरे कर लिए हैं| वह आजादी जो कि ए•सी कमरों में ना बैठकर और जेड सिक्योरिटी में ना  रहकर असंख्य शहीदों की आहुतियां से प्राप्त की गई है ।
"शहीद" जिनमें
"क्रांतिकारी भी आते हैं,
गांधीवादी भी,
नरम दल भी आते हैं,
और गरम दल भी
व्यक्ति भी आते हैं,
और संगठन भी
पुरुष भी आते हैं
और स्त्री भी,
बुजुर्ग भी आते हैं
और युवा भी "|

भले ही उन सब की कार्यप्रणाली भिन्न रही हो अथवा विचारों के मतभेद रहे हो पर वे सब केवल एक ही उद्देश्य के लिए संघर्षरत थे और वह उद्देश्य था " स्वाधीनता अर्थात स्वतंत्रता"|

आज 23 मार्च की यह तारीख इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में लिखी गई है.|
यह तारीख है अमृतव  के सिद्धांत की ,
देश प्रेम की, लोक प्रेम की और उस प्रेम के लिए किसी मनुष्य के असीमित शौर्य के प्रतीक की. |
यह तारीख है एक सपने की.
" सपना  की मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण,
एक राष्ट्र द्वारा राष्ट्र का शोषण और व्यवस्था द्वारा लोगों पर प्रत्येक प्रकार का शोषण खत्म हो और एक ऐसा उज्जवल भविष्य हो जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके"|
उस सपने को जीने और उस पर मरने वाले भगत सिंह की फांसी की है यह तारीख ..|


Cr.Culturalindia.net


आज ही के दिन 23 मार्च 1931  को भगत सिंह को और उनके साथी कामरेड राजगुरु और सुखदेव को  बाहरी शासकों ने  इस सपने को देखने के लिए सजा-ए-मौत फांसी दी थी |

भगत सिंह ने आजादी के मायने  की बहुत ही खूब व्याख्या करते हुए कहा था
" सत्ता अंतरण को हम आजादी नहीं मानते गोरे अंग्रेजों की जगह भूरे अंग्रेज हम पर आकर राज करें हम उस आजादी के लिए नहीं लड़ रहे हैं | अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध लड़ाई तो हमारा उस युद्ध के खिलाफ पहला मोर्चा है  | अंतिम लड़ाई तो हमें शोषण के विरुद्ध ही लड़नी होगी."|
वह 23 वर्षीय युवक किस शोषण की बात कर रहा था ? वह कौन सी शोषणकारी व्यवस्था थी ?
•शायद उस व्यवस्था के जिसके अंतर्गत अंग्रेजी सरकार भारतीय जनता पर राज कर रहे थे जिसके फलस्वरूप अपने ही देश में रहकर अपने भले बुरे का फैसला नहीं कर पा रहे थे
• वह  दमन जोकि अंग्रेजी सरकार भारतीयों पर करती | जो अपने अधिकारों की बात  करते उन पर डंडे बरसाती गोलियां चलाती  और कालापानी भेज देती
•  शायद शोषण जिसमें कुशल संसाधन होने के बावजूद लोग भूखे मरते
• जिसमें कि बड़े ही सुनियोजित तरीके से अंग्रेज भारत देश  के एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय  से धर्म जाति और भाषा के नाम पर लड़ते |
• वह शोषण आधारित व्यवस्था जिसमें कि विकास और देश प्रेम के पैमाने बड़े ही दिलचस्प रूप से तय किए गए थे|
जिसमें कि विकास का पैमाना था कि चंद लोगों द्वारा धन संयुक्त करने की कुशलता तथा इस कारण से बाकी की बहुसंख्यक लोगों को जीवन भर उनकी बुनियादी जरूरतों से दूर रखा जाए |
• वह व्यवस्था जिसके अंतर्गत व्यवस्थागत तरीके से स्वतंत्र विचार को कुचला जाता हो|
कुछ भी हो पर वह लड़ाई वह युद्ध जिसकी वह बात करते थे एक ऐसे समाज को स्थापित करने का था जिसका आधार प्रेम हो और जिसमें किसी प्रकार की नफरत या दमन का अंश मात्र भी ना हो |
भगत सिंह ने एक दफा कहा था
" मृत भगत सिंह अंग्रेजी शासकों के लिए जीवित भगत सिंह से कहीं ज्यादा खतरनाक होगा | मेरे मरने के बाद मेरी मिट्टी से भी खुशबू ए वतन आएगी | वह खुशबू युवाओं को आजादी और क्रांति के लिए दीवाना बना देगी और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के अंत को और निकट ला देगी ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है |"

युवाओं को ही संबोधित करते हुए भगत सिंह ने एक अन्य लेख में लिखा है :
"देश में कुछ लोग कहते हैं कि छात्रों को राजनीति से दूर रहना चाहिए मेरा मानना है कि छात्रों का प्रमुख कर्तव्य  पढ़ना होता है और उन्हें कभी इस दिशा से  विचलित नहीं होना चाहिए ,पर क्या यह शिक्षा का हिस्सा नहीं की छात्रों को अपने देश की समस्याओं के प्रति जागृत करें और उन्हें ठीक करने के लिए प्रेरित करें | ऐसी शिक्षा जो केवल क्लर्क पैदा करें  ऐसी शिक्षा पर धिक्कार है "|

समकालीन स्थिति
आज से 3 दिन पहले 20 मार्च 2020 को निर्भया दुष्कर्म मामले में चार दोषी पाए गए युवकों को फांसी दी गई .|अन्य दो दोषियों में एक दोषी वारदात के समय मात्र 17 वर्ष की आयु का था|

क्या यह उसी भगत सिंह का देश है जिस की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपने अस्तित्व की की ओर कोई ध्यान नहीं दिया अस्तित्व की परिकल्पना भी ना की थी और हंसते हंसते फांसी का झूला झूल गए थे | जिन युवाओं को वे बदलाव का अग्रदूत मानते थे और जिन पर उन्होंने इस शोषण रहित समाज बनाने का उत्तरदायित्व छोड़ा था क्या वेआज उन  असूलो पर चल रहे हैं ? चलना छोड़िए क्या बे उन  असूलो से वाकिफ  भी है ?
आज हम देखते हैं कि आज  का युवा जहां एक तरफ नशे में धुत है तो वहीं दूसरी ओर अपनी विलासियत  के चलते इन बातों को इस तरह नजरअंदाज करते हैं जैसे कि आजादी  अंग्रेजी  चाचाओ ने उन्हें तोहफे में दी हो |बाकी बचे कुचे युवा टिक टॉक फेसबुक तक ही सिमट कर रह गए हैं |उन्हें इस कदर निकम्मा बना दिया गया है कि वे इस दुनिया से बाहर ही नहीं निकलना चाहते|
अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या करें?
इस संदर्भ में भगत सिंह ने कहा था
" स्वतंत्र विचार और निर्मम आलोचना ही क्रांतिकारी के सबसे महत्वपूर्ण लक्षण होते हैं "
आज आवश्यकता है पुण: उन्हीं आदर्शों का मूल्यांकन करने की , उन क्रांतिकारियों से मित्रता करने की , एक बार फिर से उसी सपने का देश जिसकी भगत सिंह बात करते थे उस भारत देश का निर्माण करने की और ...........

इस और को पूर्ण करने की|

" शायद आजादी हासिल करने की लड़ाई हमने उनकी बदौलत जीत ली पर आजादी बनाए रखने की लड़ाई ,आदर्शों और मूल्यों को कायम रखने की लड़ाई अधिक महत्वपूर्ण होगी और वह लड़ाई

Comments

Popular posts from this blog

Philosophy of her 'Kajal'

    In the delicate dance of her emotions, her eyelids moved like the wings of a butterfly, carrying whispers of both serenity and storms. Her lips unfolded the echoes of emotional turbulence in her heart and mind, revealing the betrayals and angst of existence. She concealed an ocean of tears with abrupt movements of her eyelids, gracefully halting their descent. Gently unraveling the tendrils of her hair, her fingers marked a metaphorical pause before the next chapter. Amidst the echoes of betrayal, a subtle wrath ignited in the depths of her tear-laden gaze.....a fire fueled by the intensity of her emotions. Suddenly, she paused and said, 'Hold on, let me find my Kajal.' I questioned with my eyes, 'Why do you need Kajal in the middle of the night?' She smiled with wet eyes. With meticulous precision, she adorned her eyes with Kajal, a ritual akin to a participant in a fashion exhibition. In that act, I witnessed not just a cosmetic embellishment but a manifes...

बहरों को सुनाने के लिए धमाके की जरुरत होती है। फिल्म रिव्यू - धमाका

                                      राम माधवानी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘धमाका’ 19 नवंबर 2021 को रिलीज हुई और वाकई में धमाका कर दिया। स्टोरी दो लोगों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक है अर्जुन पाठक जो कि एक लीडिंग पत्रकार होने के बावजूद प्राइम टाइम शो से हटा दिया गया है और अब एक रेडियो कार्यक्रम में होस्ट के तौर पर काम कर रहा है। उसकी निजी जिंदगी तनावपूर्ण है क्योंकि अभी हाल ही में उसका तलाक हुआ है। अर्जुन पाठक एक कैरियरवादी, व्यवसायवादी किस्म का पत्रकार है, जो हर हाल में अपने कैरियर में उंची बुलंदियों को छूना चाहता है। दूसरा है खुद को रघुबीर महता कहने वाला तथाकथित आतंकवादी। दोनों किरदारों की बात फोन पर होती है। रघुबीर के शुरुआती संवाद से ही वो दिलचस्प इंसान लगने लगता है - ‘‘अमीरों को क्या लगता है कि सिर्फ वही टैक्स देते हैं, गरीब भी माचिस की डिब्बी से लेकर बिजली के बिल तक हर चीज पर टैक्स देते हैं।’’ पाठक जी को लगता है कि यह एक प्रैंक काॅल है लेकिन उनका भ्रम टूटता है वो भी एक धमाके से। और यह ‘धमाका...