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फिक्र




फिक्र ।
ढलती शाम
तुम्हें मदहोश करती है।
हमें फिक्र देती है पर।
हम ढो रहे है सदियों का बोझ
पीढ़ी दर पीढ़ी
खीच रहे है
गले सड़े रवायतों का पहिया।

रातें गर्म हो या सर्द
हमारे हिस्से मेहनत ही आई है।
पर्वतों को चूर कर रास्ते बनाये हमने।
धरा को भेद कर फसलें उगाई हमने।
स्कूल बनाये,
कालेज बनाये,
कला सृजी, गीत बनाये
घर बनाये, अस्पताल बनाये।
पुस्कालय बनाये,
संग्रहालय बनाये।
और इन सब से हमारे ही
वंशज रहे महरूम।
लेकिन हर बीतता हुआ
लम्हा,
हमें कर रहा है सचेत।

हमारे कंधे तने है,
उम्मीदें बंधी है कि
कभी न कभी ये तिलस्म टूटेगा।
कभी तो होगी सुर्ख शाम 
सब के लिए बराबर।

~गुलशन उधम ।

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